
तिरुपति बालाजी की जीवन कथा भाग 2 भृगमहर्षि ब्रह्म देव के पास जाना
कार्यार्थ होकर जाने के लिये भृगमहर्षि पहले पहल सत्यलोक जाकर चतुर्मुख ब्रह्म निवास के पास पहुँचे थे। उस समय में ब्रह्म देव अष्ट दिक्पालों से, महाऋषि पुंगवों से बैठकर सृष्टिरहस्यों पर चर्चा कर कहा है उस समय में सभा में बैठे हुये सब लोग ब्रह्म देव जो विवरण कर रहे थे सब अत्यंत श्रद्धा से सुन रहे है भृगमुनि अंदर अकर किसी को प्रणाम न करके अपने आसन को ग्रहण कर लिये थे । ब्रह्म देव अपने कार्य में निमग्न हुये थे ब्रह्म देव भृगमुनि को देखकर उसकी कुशल ना पूछकर और उनको उचितासन को न दिखाने की आग्रह से मुनि ने चतुर्मुखि सकल चराचर सृष्टि के कर्ता तुम ही हो इस अहंकार भाव से कार्यार्थी – होकर आया हुआ मुझे भी तुम नही देखें तुमको इतना गर्व ? लोककल्याणार्थ के लिये हमारे जैसे लोग क्रतुओं को कर रहे थे और तुम हमको आशीर्वाद देना भी मुँह से ना बोलते हुए गर्व में पडा हुआ है।

इसलिये, भूलोक मैं तुम्हें, पूजा मंदिरों ये नही होता । इस तरह शाप देकर, उनका आने का कार्य नहीं सफल हुआ इस आग्रह से सत्यलोक को छोड़कर कैलास गये थे ।
भृगु मुनि के प्रवर्तन से आश्चर्य होकर सरस्वति देवि ब्रह्म देव से पूछी थी तब ब्रह्म देव ने ‘देनी! तुम आंदोलन न होकर भृग मुनि करने का काम और भी बहुत है दिखती रहो’ इस तरह देवी को स्वांत वचन से शांत किये थे ।
भृगमहर्षि परमशिव को दर्शन करना
सत्यलोक में ब्रह्म देव से उनका कार्य सफल नहीं होने के कारण गुस्से में शिव को परिक्षा करने केलिये भृग कैलास गये थे। वहाँ उनका कार्य सफल होता है इस तरह उन्होंने सोचा लेकिन, उस समय कैलास में प्रमयगण लोग शिवनाम स्मरण में तांडव कर रहे थे भृग मुनि वहाँ आना किसी ने नहीं देखा जिसका तांडव उनका है । तब भृग सीधा के लि मंदिर में जाने के लिए तैयार हुये द्वारपालकों ने उनको अंदर नही जाने. दिये थे। तब भृग मुनि उनलोगों को धिक्कार करके, उनके मार्ग में जो. हुआ उनको हटाकर अंदर प्रवेश किये थे।
उस समय शिवपार्वदि श्रृंगार क्रीडा में निमग्न हुये थे । तब भृगमुनि को देखकर पार्वति शर्मीली होकर वहा से चलगयी थी । इससे शिवजी बहुत क्रोध से हे ‘भृग! तुम तपःश्शाली होकर भी इस तरह की स्थल पर नहीं आना चाहिये तुम्हें मालूम है है तुम मेरा भक्त हो इसलिये क्षमा कर रहा हूँ। नहीं तो तुम्हें भस्म करदेता इस तरह उनको चेतावनी दिये थे ।
भृगमुनि शिव जी के क्रोध को सीहत किये थे ‘इसने में जो काम में आया उसका आंतर्य को न जानकर तामसगुण से मेरादूषण किया। मैं जो काम में आया उसका आंतर्य को न जानकर तामस गुण से मेरेदूषण किय ॥ मैं जो काम में आया था वह शिव से भी व्यर्थ हुआ’ इस तरह मनमें सोचकर ‘हे शंकर! तुम्हारेलिये श्रम लेकर आ हुआ मुझे दूषणों से भेज रहा है। इसके प्रतिफल मेरा शाप लो ‘भूलोकवासियों तुम्हें लिंगाकार में ही पूजा करते है।’ इस तरह शाप देकर अतिशीघ्र वैकुंठ के लिए गये थे ।
वैकुंठ में भृगमहर्षि श्रीहरि को दर्शन करना
वैकुंठ लक्ष्मीनारायणों का निवास है। सर्व संपदों, सर्व निलय है पुण्य फल पाया हुआ जन वहाँ लक्ष्मी नारायण को सेवा करते सुख के लिये है गरुड, गंधर्व, किन्नर, किंपुरुष सब वहाँ निवास करते है। जहाँ भी देखो स्वर्णमय भवन है। उध्यानवन है। मुक्कोटि देवताओं को वह पुण्यस्थल है। वह वैकुंठ आया हुआ भृग लक्ष्मीनारायण की निवास में प्रवेश किये थे। उस समय में लक्ष्मीदेवि पति के पाँच दबाते हुये, शर्म से सिर नीचे करली थी। लक्ष्मीदेवि के सेवाओं से अंदर ही संतोश हो रहा हे नारायण ।
भृग उस दृश्य देखकर, लक्ष्मीनारायणों की दर्शन भाग्य से तन्मय होकर मन में नारायण को ध्यान करते हुए खडे हुये थे महर्षि का आना लक्ष्मी नारायणों ने नहीं देखे थे। भृग मुनि अमित क्रोध से नारायण के पास जाकर उनके पाँव से विष्णुवक्षस्थल पर मारा तब लक्ष्मी नारायणों में जागकर उठे । ब्रह्मदेव, शिवदेव से अवमानित होकर पराभव हुआ भृग उनका आवेश को निग्रह न करके लक्ष्मी के निवास स्थल विष्णु वक्षस्थल पर मारने से लक्ष्मीदेवी को बहुत क्रोध और पराभव हुआ शीघ्र ही नारायण भृग महर्षि को नमस्कार करके, ‘स्वामी! मुझे आप अपना सुकुमार पाँच से मारने से आपके पाँव को बहुत दर्द हुआ है ।
आहा! क्या भाग्य है मेरा! आप जैसे तपःश्शाली के पाद स्पर्श मुझे मिलने से मैं धन्य हुआ ।

उस तरह कहते हुये भृग मुनि के पाँव लेकर उसको दबाते हुये उसके पाँव में हुआ त्रिनेत्र को नाशन कर लिया । तब तक भृंग महर्षि में वडा हुआ अहंकार को छोडकर ज्ञानोदय हुआ है। श्रीमन्नारायण महर्षि के पाद पूजा करके उचितासन पर बिठाकर ‘शिपुंगव! आप जो कार्य पर आये थे मैं ग्रहण कर लिया ।
आपके मनकी कामना सिद्ध होगा’ ऐसे विनय से कहने से आहा! कैसा शांतस्वभाव मेरा जाल्दिपन से क्रोधित न होकर मुझे ही सेवा करना? सच ये सात्विकगुण होनेवाला श्रीमन्नारायण एक ही है’। इस तरह मन में भाव करके, ‘महानुभाव! लोक कल्याण केलिये कश्यपादि मुनिश्रेष्ट यज्ञ कर रहे है उस यज्ञफल को पाने के लिए आप ही एक समर्थ है। इसलिये यज्ञफल को आप स्वीकार करने के लिए आइये इस तरह सादर आह्वान किये थे भृग महर्षि ‘आपके यज्ञ पूरा होने के समय पर मैं जरूर आकर यज्ञफल को स्वीकार करता हूँ।’ इस तरह कहकर, विष्णुमूर्ति भृग मुनि को भेज दिये थे ।
संतोष से भृग यज्ञ स्थल के पास आकर, उसने त्रिमूर्ति ब्रह्म, विष्णु महेश्वर को कैसे परीक्षा करली, और उनके गुणगाण विशेषों को उन लोगों को निश्चिताभिप्राय से मुनि पुंगवों को बताये थे। उनके बात पर कश्यपादि मुनि श्रेष्टों ने सब शांत स्वभाव वाला विष्णुमूर्ति को ही बाग फल दे केलिये निश्चय किये थे ।
श्रीहरि को और वैकुंठ को छोड़कर लक्षी देवि भूलोक में आना
‘वक्षो विहारिणी दिव्यमूर्ति, ‘लक्ष्मी देवि सर्वदा श्रीमन्नारण की हृदय में ही रहती है। उसकी निवास स्थल वक्ष पर भृग अनर्थ क्रोध से डाँटने पर भी, ‘नाथ! आपकी शांति के लिए कारण क्या है? एक जटाधर आकर पालक आप को डाँटना ? यह कैसा योग्य है। कितना अवमान है। इस तरह कहकर लक्ष्मीदेवि शे रही है। लक्ष्मीदेवि के आँखों के पानी को अपने हाथों से निकालकर ‘देवी! भृगमुनि सामान्य नहीं है। महाज्ञानी है। एक महत्तर कार्य साधन केलिये ही यहाँ आया है। वह जिसकाम पर आया है ओ सफल हुआ।
मैंने उनकी गर्व को निकालकर ज्ञानोदय किया था। इसमें मेरा दोष क्या हैं? इस तरह प्रश्न करने से, लक्ष्मी शीघ्र उठकर ‘स्वामी! आप इस तरह की शांतवचन कहने से मेरा हृदय को जो घाय हुआ ओतो नही मिठा सकते है। एक जटाधरि आकर हमारे बीछ मे जो प्रेम संबंध था उसको अगाध करके गया मुझे आपके वक्षस्थल पर चिपाकर रहते है उस स्थल को आपका और मेरा क्षण पूर्ती हुयी थी। इस तरह गुस्से से कहीं। श्रीहरि कितने हित वचन करने पर भी हाथ को मिटाकर, पति के पाँव को नमस्कार करके लक्ष्मी भुलोक में आयी थी।
उस तरह पति पर क्रोध से, वैकुंठ को छोड़कर लक्ष्मीदेवि भूलोक में पुण्य गोदावरि किनारे पर हुआ कोल्हापुरी में जाकर उस प्रशांत प्रदेश में पर्णशाला के निर्माण करके तप में निमग्न हुई थी।
महालक्ष्मी विष्णुमंदिर और बैकुंठ को छोड़कर जाने से श्रीहरि आश्चर्य चकित हुए थे। इस तरह होने का विषय कभी नहीं सोचे थे । नित्य कल्याण से विराजमान होते हुए दिखाती वैकुंठ आज कलाहीन हुयी थी। मंदिर में श्रीहरि एकही है। थैकुंठ वासियों सब ये वार्ता सुनकर हाहाकर किये थे। लक्ष्मीनारायण की दर्शन भाग्य न मिलने पर देवताओं मे हताश हुए है । श्रीहरी के दुःख किसी से बोलने की भी नहीं है। किसी तरह लक्ष्मी को इंडकर अपने वदास्थल पर अधिरोह करने का निश्चय उसमें अधिक हुई थी।’ मेरा लक्ष्मी नहीं रहा ये वैकुंठ मुझे क्या लक्ष्मी से भूलोकवासी सब लक्ष्मीपुत्र होते हैं।

धनमद से गर्विष्टि होते है। मेरी रमादेवी को मुझे ही लाना है। इस तरह शपथ करके, विष्णुमूर्ति भी लक्ष्मीदेवी को ढूंढते हुये भूलोक के प्रयाण हुये थे नदियों को अधिगम किये है। समुद्र अधिगम किये है। घोरारण्यों मैं डूंढे है ‘लक्ष्मी! मेरी लक्ष्मी! तुम कहाँ हो लक्ष्मी! सुकुमार लावयवति तुम इस कठिन शिलाओं पर, इस रेगिस्तान पर कैसे हो!’ इस तरह पागल की तरह पुकारते हुये, नींद भी छोड़कर कुशित होकर श्रेषाद्रि पर्वत पहुँचे थे।
आहा! इस काल का वैपरीत्य कया है? सर्वलोक पालक इस श्रीहरि को, लक्ष्मीदेवि उसके साथ न रहने से कैसी दुर्दशा आयी थी।