
तिरुपति बालाजी की जीवन कथा भाग 3 शेषाद्रि पर्वत राज की चरित्र
शेषाद्रि पर्वत को एक एक युग में एक एक नाम से पुकारते रहते थे। इसको वेंकटाचल नामसे भी पुकारते हे। इस पर्वत पर ही वराह स्वामि आश्रम को निर्माण करके तपस्या कर रहे थे ।
एकदिन आदिशेष और वायुदेव को अपने अपने वल पराक्रम पर वादोपवाद आयी है। ओ छोती सी बात बडा तूफान बनकर उनदोनों के बीच में झगडा बड गयी दोनों ‘तुम क्या, तुम्हारा बल कितना’ इस तरह अपने कंथों पर हाथ लगाकर बातें कर रहते समय त्रिलोक संचारी नारद महर्षि आकर, घर्षण के मूल कारण को मालूम किया है।
उनलोगों के अहंकार को निकालने के लिये युक्ति आलोचन करके ‘हे बलाड्डयों आप इस तरह कंथों से अपना बल को दिखाने से मैं जो परीक्षा लगाता हूँ उसमें आप दोनों भाग लीजिये । कौन विजय पाते है ओ ही महाबलवान जैसा परिगणन में आता है। ओ क्या है कि विंध्य पर्वत में भाग हुआ आनंद पर्वत को आप दोनों कौन चलित करता है वही बलवान है। इसलिये आप आनंद पर्वत को चलित कीजिये इस तरह सूचना दी। वायु, शेष दोनों आनंद पर्वत के पास चलें।
वायु प्रचंड वेगसे पर्वत को विचलित करने का प्रयत्न करे तो, शेष उसको अपने बल से चलित नहीं होने दिया। शेषगिरी को उससे लेने की प्रयत्न किया तो वायु महाप्रचंड वेग चलकर पर्वत को चलित नहीं होने , दिया। दोनों में आवेश बड गये थे। शेष विष प्रकट किया। वायु मध प्रचंड हुआ।
उरू विष ज्वाला और प्रचंड वायु से पर्वत में निवास करते हुये सर्व प्राणी प्रकंपित हुये सर्वप्राण अपने प्रणों के अपने हाथ में रखकर हिचकिचा रहे है। वायु, शेष दोनों का झगडा लोक संचलन हुआ। उन दोनों की आग्रह को शांत करने के लिए देवेंद्र नायाकत्व में सब देवताओं ने उस पर्वत के पास आकर ‘हे बलाड्यों! आप दोनों की झगडा से सर्व प्राणि विनाश होने की स्थिति आयी थी। वायु, प्रचंड से चलने से समुद्र उचल रहा है। शेष से भूकंप आरहा है।
जीवकोटि केलिये अपने झगडाओं को छोड़ दीजिये। इस तरह उनलोगों से विनती की जीवराशियों पर अपार प्रेमसे शेष अपना क्रध शांत किया। वायु भी अपना क्रोध को शांत किया। दोनों शांत हुये थे। शहख फणि होनेवाला शेष अपना शरीर को बढाकर आनंद पर्वत को आक्र मित करने से उस पर्वत का नाम “शेषाचल” रख दिये। वायु भी अपनी बल को विजृंभण करने से पास में रहा पर्वत को “अंजनाद्रि” के नाम से पुकार रहे है।
शेष श्रीहरि को स्मरण करते हुये पर्वत का रूप पालिया । शेषाद्रि के नाम से पुकार रहे ओ पर्वत का फणिप्रदेश ही वेंकटाद्रि है। उसका मध्यभाग ही अहोबिल । ब्रह्म शेष को बताने ने से वराह स्वामि शेषाद्रि के ऊपर आकर आश्रम का निर्माण कर लिया है।
ब्रह्म, परमेश्वर गाय बच्चे की तरह
श्रीमन्नारायण फिर फिरकर थक गये है। शरीर में जो शक्ति हैं ओ खतम हो गयी। कुछ दूर भी पयन करने की स्थिति में न होने की कारण शेषाद्रि के पास पहुँचकर वहाँ एक इमली के पेड़ के नीचे बैठा। कहाँ वैकुंठ कहाँ शेषाचल? बहुत बक हुआ श्रीहरि विशांत कहाँ लेना सोचकर यहाँ पास में एक वल्मीक दिखाई है, उसमें रहने से किसी को दिखाई नहीं देते सोचकर उसमें चला। वही उसका वैकुंठ है। आहार, नींद ना होने से ही दिन चल रहे है।

नारद अपने दिव्यदृष्टि से नारायण की स्थिति को समझकर, सत्यलोक में ब्रह्म को, कैलास में शिव को मिलकर सारा विषय बताने से श्रीहरि के पेट की दर्द को मिठाने के लिये ब्रह्म गाय का रूप, ईश्वर उसकी बच्चे की रूप पारकर भूलोक में आये थे विष्णु पर खफा होकर भूलोक में आयी हुई लक्ष्मी कोल्हापुर में तपस्या कर रही थी मालूम करके, उसके दर्शन करके, श्रहीर के अवस्था को बताने से लक्ष्मी रो रही। ‘माँ जो हुआ उसके लिये विचार करने से, उसका तरुणोपाय सोचिये।
उसका तरुणोपाय क्या हो कि हम दोनों गाय और बच्चे की तरह रूप पालेते है। तुम भी गोपकन्या की तरह रूप पाकर हम दोनों को चोळराजा के पास ले जाओ। तब ओ हमें घास खाने के लिये लेते है तब श्रीहरित के भूख मिटाने के लिए दूध दे सकते है। इसलिए तुम हमारी कामना को मानकर गोलकन्या के रूप पाओ’ इस तरह कहें। नाथ की भूख मिटाने के लिए यह अच्छा आयोजन है।

लक्ष्मी उन दोनों को लेकर चोळराजा के पास लेगयी थी। उस गाय की रूप, शरीर दृढ़त्व, साधुत्व को देखकर राजा से उसकी पट्टमहिषि पति से किसी तरह उस गाय और बच्चे को खरीदना है, इस तरह राजा भी संतस उनदोनों को खरीदलिया ।
चोळराजा को उसके पहले ही बड़ा गाय की समूह हे। उस समूह में ओ गाय और बच्चे को मिलादिये। हरदिन उनको जंगल लेकर, घास खाने के बाद, सायंकाल घर लाकर दूध लोने उस पशुकापरि का काम है। इस तरह हरदिन हो रहा है। फिर ये गाय पेट भरकर खा कर सायंकाल घर आने से पहले श्रीहरि विश्राम करते हुए बत्मीक पर चढ़कर अपने दूध उस वाल्मिक से श्रीहरी के मुखपर चढ़ा रहे हैं। इस तरह दिन चल रहे है। सायंकाल जब दूध लेने के लिए गोप के पास जाते है उससे दुध नहीं आ रहे है।
इस विषय को शणि-राजा को बतायी थी। राजा ग्वाला पर क्रोधित शंका से पूछा ‘मेरी गाय दूध लेकर तुम पी रहे हो? कैसे मुहूर्त में इस गाय को लिये थे तब से एकदिन भी उसकी दूध हमारे आँखों से नहीं देखे थे।” इस तरह उससे कहाँ।
ग्वाला को भी संदेह हुआ। ‘ये सब गाय की तरह दिखा रही है। इसको जागरुक से देखने है।’ इस तरह मनमें सोचकर हर दिन की तरह सब गाय को घास खाने के लिये लेलिया ये गाय घास खाकर अपने बच्ची से समूह से अलग होकर वल्मीक के पास आकर अपने दूध को वल्मीकी में छोड़ा। उस दृश्य को देखकर वह ज्वाला बहुत क्रोधित होकर, इससे मुझपर निंदा आयी थी।

ये इस तरह वल्मीकी में अपने दूध का इस तरह छोड़ रहा है। इसको सबक सिखाना है। उस तरह हाथ में कुठार लेकर गाय को मारने की खोशिश की। मुझे उपकार करने केलिये आया गोमाता को मारना दिखाहुआ श्रीहरि वल्मीकी से अपना सिर बाहर रखने से ओ ग्वाला मारने से श्रीहरि का घाँव हुआ।
रक्त को देखकर ग्वाला मूर्छित हुआ ओ गाय ‘अंबा, अंबा’ पुकारते हुए शेषाचल से नीचे आकर बोळराजा के घर आयी थी। उस गाय की आँखों से पानी देखकर राजा आश्चर्य होकर और एक ग्वाला को बुलाकर क्या हुआ मालूम करके आना इस तरह उनको भी भेजा। ओ ग्वाला भी मुर्छित हुआ। आया हुआ को भी आश्चर्य हुआ ओ राजा को जो देखा ओ बात बताया। राजा आश्चार्य चकित होकर ओ भी अपने आँखों से देखने केलिये ग्वाला से शेषाचल पर्वत पर आकर देख रहा है।

आकर देख रहा है तब श्रीहरि उस वल्मीकि से बाहर आकर ‘हे! अदांध ! मुझे तुम्हारी ज्वाला से मार दिया तुम्हें कितना गर्व है? तुम्हारी अनुचर से मेरी सर पर मारा दिया, और आकर मुझे देखने आया था। तुम्हें मैं शाप दे रहा हूँ। तुम राक्षस का रूप पायेगा। उस तरह शाप देने से, राजा कंपित होकर ‘प्रभू’ मुझे क्षमा करिये इस तरह कहकर श्रीहरि के पाँव पर पडगया।
‘स्वामी! उस विषय मुझे नहीं मालूम । मैं कोई पाप नहीं जानता स्वामी मुझे क्यों राक्षस होने का शाप दिये थे। मुझे यो रूप कैसे चलाजाता है ? आप इस वल्मिकी में होने का कारण क्या है’ इस तरह अति दीनातिदीन प्रर्थना की ।