तिरुपति बालाजी की जीवनकथा श्री वेंकटेश्वर महात्यम् चरित्र नैमिशारण्य प्राशस्त्यम्
आर्य नागरिकत के जननी हमारा भरतखंड के उत्तरभाग में प्रपंच प्रसिद्ध हुआ हिमालयपर्वत श्रेणियों में अति सुंदर, आह्लादकर और पवित्र भूभाग में “नैमिराम” नाम का एक अरण्य है। वह महर्षियों तप करके सिद्धि पाने के लिये चुना हुआ प्राशांत स्थल है। उस नैमिशारण्य में ऋाशि श्रेष्ट आश्रमों का निर्माण करके प्रतिनित्य भारत, रामायणादि पुराण पठन, वेद पारायण, सकल शास्त्र आष्टादश पुराण श्रवणादियों से कालक्षेप करते हुए विराजमान हो रहते थे ।
इस तरह की नैमिशारण्य में व्यास महामुनि के शिष्य सूत मुनि आश्रम को निर्माण करके उनके शिष्य लोग शौनकादि मुनि पुंगवों को, सुदूर प्रांतों से आये हुए मुनि पुत्रों को, पुराणेतिहास के सकल धर्मशास्त्र सोदाहरण से बताते हुये उनलोगों की संदेहों निवृत्ति करते रहते थे ।
एकदिन सूतमुनि, शौनकादि मुनिश्रेष्ट दर्भासन में आसीन होकर कुशल प्रशनों से गोष्टि होते समय ऋशियों ने सूतमुनि से महानुभाव। इस कलियुग में परमपावन हुआ, सकल इष्टार्थसिद्धि देने का पुण्य क्षेत्र क्या है? और “कलौ वेंकटेशाय नमः” नाम से प्रख्यात वह श्री वेंकटेश्वर की जीवित लीलाओं को हमें विस्तार से बतायिये इस तरह प्रार्थना करते हुए उन लोगों की बात मानकार इस तरह वितरण करते हैं ।
सूतमहामुनि वेंकटेश्वर की चरित्र को विवरण करना
सूतमहर्षि मंदहास वदन से मुनियों की अभीष्ट को गुरुभ्यों नमः इस तरह उनकी गुरुवर्य व्यास जी को मन में ध्यान करके शौनकादि मुनि पुंगवों आप सबको वेंकटेश्वर महात्म्य को विवरण करने के लिये मुझे भी बहुत कुतूहल है। वह चरित्र परम पवित्र है। सुनते हुए आप, सुननेवाला में हम सब धन्य होते है परित्राणाय साधूनां विनाशायच दुष्कृतां धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे उस तरह भगवान की गीतोपदेश के प्रकार सर्व युगों में जब धर्म क्षीण होकर अधर्म, अक्रमम, हिंस प्रबल होता था।

तब श्रीमन्नारायण की परिस्थितियोंके अनुगुण के अवतार लेकर दुष्टशिक्षण, भक्त शक्षण करके लोक को शांतियुत में रह रहा हैं। इस कलियुग में श्री विष्णुमीर्ति श्रीनिवास की आवतार में जन्म लिया हुआ
स्थल भूलोक में परम पवित्र स्थल है । इस पुण्य भूमि वृषभाद्रि, अंजनाद्रि, सेवाद्रि, वेंकटाद्रि के नाम से बुला रहे है । कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग पूरा होने के बाद चौथा कलियुग है। कलिपुरुष ? के प्रभाव से कस्यापादि मुनियों ने उनके दूरदृष्टि से भूलोक की परीस्थिति देखकर आंदोलन हुये । जहा भी देखो अशांति, अराचक, क्षाम सब तांडव कर रहे थे युक्तायुक्त की विचक्षण नहीं होते हुए प्रजा लोग संचार कर रहे है। जन मुक्तिमार्ग के लिए ढूंडते हुए श्लेष्म में पड़ा हुआ संसार बंधों से मुक्ति नही पा रहे हैं। इसकी तत्रगोपाय के लिए महामुनियों सब बाग करने के लिए संकल्प किये थे ।
नारद ब्रह्मा के दर्शन करना
दिव्यदृष्टि से नारद भी भूलोक में संचार करते हुए मानव लोग करते हुए अकृत्यों को देखकर चिंतित हुये थे। शीघ्र ही सत्यलोक जाकर उनके पिता ब्रह्म देव को अभिवाद किये थे उभय कुशल प्रश्न पूछने के बाद नारद ब्रह्म से पिताजी श्रीमन्नारायण कृष्ण अवतार को पूरा करके फिर भूलोक में अवतार नहीं लिये थे। भूलोक सारा पापकार्यों से, अशांति से भरा हुआ था। इस परिस्थिति में श्रीमन्नारायण फिर अवतार लेके शांति को स्थापित करने का उपाय मुझे बतादीजिये इस तरह प्रार्थना किये थे ।
तब ब्रह्मदेव – “हे नारद! तुम सर्वज्ञ हो जो कुछ भी होते तुम्हें मालूम हैं फिर भी और थोड़ा समय निग्रह से रहना पडता है। शीघ्र ही विष्णुमूर्ति भूलोक में अवतार लेते हैं इस तरह नारद को बताकर उनको भेजदिया ।
लोकशांति के लिये मुनियों यज्ञ करने की निश्चय करना
लोक कल्याण केलिये कश्यप महामुनि नायकत्व में सब मुनियों ने यज्ञ करने का निश्चय किये थे विष्णुस्वरूप गंग नदी के किनारे पर यज्ञस्थल के लिये चुन लिये थे यज्ञ के लिए सब काम पूरा करके, मुहूर्त निर्णय करके, यज्ञ में भाग लेने के लिये सब मुनिपुंगवों को आह्वान पत्र भेज दिये उनलोगों से नाहत महर्षी को भी आह्वान किये थे।
यज्ञ प्रारंभ होने का समय में सारे मुनियों से त्रिलोक संचारि नारदमहर्षि भी हरिनाम संकीर्तन से यज्ञ स्थल के पास आये थे । नारदमुनि वहा आते देखकर सब संतोश हुये थे।
ब्राह्मपुत्र को यथोचित सत्कार करके दर्भासन पर बिठाये थे । यज्ञ आस्त्रोक्त रीति से वेदघोषणों से प्रशांत वातावरण में कर रहे थे। उस समय में नारद कश्यपादि मुनिपुंगवों से महा ‘तपस्यों ! लोक कल्याणार्थ के लिये इस क्रतु को क्या कर रहे है। यज्ञ प्रभाव से सर्वारिष्ट जाकर शांति मिलती है। ये सब अच्छि है लेकिन, इस यज्ञफल को कनिको देते है। सामान्य इसके लिये ताकत नहीं है न ! मेरा अभिप्राय ये है कि इस के लिये त्रिमूर्ति ही है – शांत, सहन, सत्वगुण जिसको होती है उनको ही ये यज्ञ फल देना है’ इस तरह उनको कहा ।

नारद जो कुछ मुनियों से कहा उन मुनियों ने आश्चर्य में पडे हुये थे । त्रिमूर्तियों में कौन सात्विक है ? कौन नहं है ? इस तरह वादोपवादों को उठा लिये थे किसका इष्ट दैव को वह आराध है इस तरह उन लोगों ने वादोपवाद करते हुये थे । यह विषय एक न खतम होने की समस्या की तरह पड़ा हुआ ।
परिस्थिति को देखकर नारद महर्षि ‘हे मुनि श्रेष्टों ! आपका वादों चोढ दीजिये सर्वज्ञ हुए आप इस तरह घर्षण नहीं बढ़ाना ही अच्छा है त्रिमूर्तियों में कौन सत्वगुण वाला है परिक्षा करो। सत्व रज-तमोगुणों में प्रथानगुण सत्वगुण ही है त्रिमूर्तियों में किन शांत गुण हुआ है निर्धारित करने के लिये महातपस्वि, ज्ञानि, महिमान्वित भृगमहर्षि समर्थ है इसलिये हमसब भृग महर्षि को ही चुनते हैं इस तरह सूचना करने से सब ने अंगीकार किये थे। उनलोगों की बात को न इनकार करते हुये भृग महर्षि उस कार्य साथन करने के लिये अंगीकार कर लिये थे ।
भृग महर्षि बहुत तपःशालि, तेजोवंत है। उनके पाँव में त्रिनेत्र होने सेओ बहुत गर्व से रह रहा है। उनका त्रिनेत्र प्रभाव से उससे बढ़कर कोई नहीं है इस तरह का अहंभाव को पाकर रह रहा है। कश्यपादि महर्षियों ने यज्ञ करने के लिये निश्चय किये थे वही यज्ञवेंकटोस्वर स्वमि का अवतार के लिये चरित्र का मूलकारण हुआ ।