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हरिनाम कीर्तन निर्देशिका – सम्पूर्ण हिन्दी अनुवाद सहित

श्रील प्रभुपाद प्रणति

नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले।

श्रीमते भक्तिवेदान्त-स्वामिन् इति नामिने ।।

मैं कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद को सादर नमस्कार करता हूँ जो भगवान् श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं. क्योंकि उन्होंने उनके चरणकमलों की शरण ले रखी है।

नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे ।

निर्विशेष- शून्यवादी-पाश्चात्य देश-तारिणे ॥

सरस्वती गोस्वामी के दास हे गुरुदेव! आपको हमारा सादर नमस्कार है। आप कृपा करके श्रीचैतन्यदेव महाप्रभु के सन्देश का प्रचार कर रहे हैं तथा निराकारवाद एवं शून्यवाद से व्याप्त पाश्चात्य देशों का उद्धार कर रहे हैं।

पञ्चतत्त्व महामन्त्र

(जय) श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द ।

श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौर-भक्त-वृन्द ॥

हरे कृष्ण महामन्त्र

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।

श्री श्रीगुर्वष्टक श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर रचित

संसार- दावानल-लीढ-लोक-

त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम् ।

प्राप्तस्य कल्याण- गुणार्णवस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ १ ॥

महाप्रभोः कीर्तन-नृत्य-गीत-

वादित्र-माद्यन्- मनसो रसेन ।

रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरङ्ग-भाजो

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ २ ॥

श्री-विग्रहाराधन-नित्य-नाना-

शृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ ।

युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ ३ ॥

चतुर्विध-श्रीभगवत्-प्रसाद-

स्वाद्वन्न तृप्तान् हरि-भक्त-सङ्घान्

कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ ४ ॥

श्रीराधिका-माधवयोरपार-

माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् ।

प्रतिक्षणास्वादन-लोलुपस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ ५ ॥

निकुञ्ज-यूनो रति-केलि-सिद्धयै

या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया

तत्राति-दक्ष्याद् अति-वल्लभस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ ६ ॥

साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैर्

उक्तस् तथा भाव्यत एव सद्धि: ।

किन्तु प्रभोर् यः प्रिय एव तस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ ७ ॥

यस्य प्रसादाद् भगवत्-प्रसादो

यस्या प्रसादान् न गतिः कुतोऽपि ।

ध्यायन् स्तुवंस् तस्य यशस् त्रि-सन्ध्यं

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्

॥ ८ ॥

श्री श्रीगुर्वष्टक श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर रचित हिन्दी अनुवाद सहित

संसार- दावानल-लीढ-लोक-

त्राणाय कारुण्य-घनाघनत्वम् ।

प्राप्तस्य कल्याण- गुणार्णवस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ १ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीगुरुदेव कृपासिन्धु से आशीर्वादी प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार वन में लगी दावाग्नि को शान्त करने हेतु बादल उस पर जल की वर्षा कर देता है,

उसी प्रकार श्रीगुरुदेव भौतिक जगत् की धधकती अग्नि को शान्त करके, भौतिक दुःखों से पीड़ित जगत् का उद्धार करते हैं। शुभ गुणों के सागर, ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

महाप्रभोः कीर्तन-नृत्य-गीत-

वादित्र-माद्यन्- मनसो रसेन ।

रोमाञ्च-कम्पाश्रु-तरङ्ग-भाजो

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ २ ॥

हिन्दी अनुवाद :- पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए, आनन्दविभोर होकर नृत्य करते हुए, गाते हुए तथा वाद्ययन्त्र बजाते हुए, श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु के संकीर्तन आन्दोलन से हर्षित होते हैं।

चूँकि वे अपने मन में विशुद्ध भक्ति के रसों का आस्वादन करते हैं, अतएव कभी-कभी वे अपनी देह में रोमांच व कम्पन का अनुभव करते हैं तथा उनके नेत्रों में तरंगों के सदृश अश्रुधारा बहती है। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥

श्री-विग्रहाराधन-नित्य-नाना-

शृंगार-तन्-मन्दिर-मार्जनादौ ।

युक्तस्य भक्तांश्च नियुञ्जतोऽपि

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ३ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीगुरुदेव सदैव मन्दिर में श्रीराधा-कृष्ण की पूजा में रत रहते हैं। वे अपने शिष्यों को भी ऐसी पूजा में संलग्न करते हैं। वे सुन्दर वस्त्रों तथा आभूषणों से अर्चाविग्रहों का श्रृंगार करते हैं, उनके मन्दिर का मार्जन करते हैं तथा भगवान् की इसी प्रकार की अन्य अर्चनाएँ भी करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥

चतुर्विध-श्रीभगवत्-प्रसाद-

स्वाद्वन्न तृप्तान् हरि-भक्त-सङ्घान्

कृत्वैव तृप्तिं भजतः सदैव

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ४ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीगुरुदेव सदैव भगवान् श्रीकृष्ण को लेह्य अर्थात् चाटे जाने वाले, चर्व्य अर्थात् चबाए जाने वाले, पेय अर्थात् पिये जाने वाले, तथा चोष्य अर्थात् चूसे जाने वाले ये चार प्रकार के स्वादिष्ट भोग अर्पण करते हैं। जब श्रीगुरुदेव यह देखते हैं कि भक्तगण भगवान् का प्रसाद ग्रहण करके तृप्त हो गये हैं, तो वे तृप्त हो जाते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ४ ॥

श्रीराधिका-माधवयोरपार-

माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् ।

प्रतिक्षणास्वादन-लोलुपस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ५ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के गुण, नाम, रूप तथा अनन्त मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ५ ॥

निकुञ्ज-यूनो रति-केलि-सिद्धयै

या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया

तत्राति-दक्ष्याद् अति-वल्लभस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ६ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीगुरुदेव अति प्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य-लीलाओं को पूर्णता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का आकर्षक आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में अत्यन्त निपुण हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥

साक्षाद्-धरित्वेन समस्त शास्त्रैर्

उक्तस् तथा भाव्यत एव सद्धि: ।

किन्तु प्रभोर् यः प्रिय एव तस्य

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ७ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीभगवान् के अत्यन्त अन्तरंग सेवक होने के कारण, श्रीगुरुदेव को स्वयं श्रीभगवान् के ही समान सम्मानित किया जाना चाहिए। इस बात को सभी प्रमाणित शास्त्रों ने माना है और सारे महाजनों ने इसका पालन किया है। भगवान् श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के ऐसे प्रमाणित प्रतिनिधि के चरणकमलों में मैं सादर नमस्कार करता हूँ ॥ ७ ॥

यस्य प्रसादाद् भगवत्-प्रसादो

यस्या प्रसादान् न गतिः कुतोऽपि ।

ध्यायन् स्तुवंस् तस्य यशस् त्रि-सन्ध्यं

वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम् ॥ ८ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीगुरुदेव की कृपा से भगवान् श्रीकृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त होता है। श्रीगुरुदेव की कृपा के बिना कोई प्रगति नहीं कर सकता। अतएव मुझे सदैव श्रीगुरुदेव का स्मरण व गुणगान करना चाहिए। दिन में कम से कम तीन बार मुझे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में सादर नमस्कार करना चाहिए ॥ ८ ॥

श्रीनृसिंह प्रणाम

नमस्ते नरसिंहाय

प्रह्लादाह्लाद-दायिने ।

हिरण्यकशिपोर् वक्षः-

शिला- टङ्क- नखालये ॥

.

इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो

यतो यतो यामि ततो नृसिंहः ।

बहिर् नृसिंहो हृदये नृसिंहो

नृसिंहम् आदिं शरणं प्रपद्ये ॥

श्रीनृसिंह प्रणाम हिन्दी अनुवाद सहित

नमस्ते नरसिंहाय

प्रह्लादाह्लाद-दायिने ।

हिरण्यकशिपोर् वक्षः-

शिला- टङ्क- नखालये ॥

हिन्दी अनुवाद :- मैं नृसिंह भगवान् को प्रणाम करता हूँ जो प्रह्लाद महाराज को आनन्द प्रदान करने वाले हैं तथा जिनके नाखून दैत्य हिरण्यकशिपु के पाषाण सदृश वक्षस्थल पर छेनी के समान हैं।

इतो नृसिंहः परतो नृसिंहो

यतो यतो यामि ततो नृसिंहः ।

बहिर् नृसिंहो हृदये नृसिंहो

नृसिंहम् आदिं शरणं प्रपद्ये ॥

हिन्दी अनुवाद :- नृसिंह भगवान् यहाँ हैं और वहाँ भी हैं। मैं जहाँ कहीं भी जाता हूँ वहीं नृसिंह भगवान् हैं। वे हृदय में हैं और बाहर भी हैं। मैं नृसिंह भगवान् की शरण लेता हूँ जो समस्त पदार्थों के स्रोत तथा परम आश्रय हैं।

श्रीनृसिंह प्रार्थना हिन्दी अनुवाद सहित

(श्रीदशावतार स्तोत्र से पृष्ठ ९७ )

तव कर-कमल-वरे नखम् अद्भुत श्रृंगम्

दलित-हिरण्यकशिपु-तनु-भृंगम् ।

केशव धृत-नरहरि-रूप जय जगदीश हरे

हिन्दी अनुवाद :- हे केशव ! हे जगत्पते ! हे हरि! आपने नर सिंह का रूप धारण किया है। आपकी जय हो। जिस प्रकार कोई अपने नाखूनों से भृंग (ततैया) को आसानी से कुचल सकता है उसी प्रकार ततैया सदृश दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर आपके सुन्दर करकमलों के नुकीले नाखूनों से चीर डाला गया है।

श्रीतुलसी प्रणाम हिन्दी अनुवाद सहित

वृन्दायै तुलसीदेव्यै प्रियायै केशवस्य च ।

कृष्ण-भक्ति-प्रदे देवि सत्यवत्यै नमो नमः ॥

हिन्दी अनुवाद :- हे वृंदावन की तुलसी देवी हे केशव की प्रिय हे कृष्ण भक्ति देने वाली देवी हे सत्यवती आपको बारंबार प्रणाम है

श्रीतुलसी-कीर्तन

नमो नमः तुलसी ! कृष्णप्रेयसी

राधा-कृष्ण-सेवा पाबो एइ अभिलाषी

॥ १ ॥

जे तोमार शरण लय, तार वाञ्छा पूर्ण हय ।

कृपा करि’ करो तारे बृन्दावन – बासी

॥ २ ॥

मोर एइ अभिलाष, बिलास कुंजे दिओ वास ।

नयने हेरिब सदा जुगल-रूप-राशि

॥ ३ ॥

एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत करो।

सेवा अधिकार दिये करो निज दासी

॥ ४॥

दीन कृष्णदासे कय, एइ येन मोर हय

श्रीराधा-गोविन्द-प्रेमे सदा येन भासि

॥ ५ ॥

श्रीतुलसी-कीर्तन हिन्दी अनुवाद सहित

नमो नमः तुलसी ! कृष्णप्रेयसी

राधा-कृष्ण-सेवा पाबो एइ अभिलाषी ॥ १ ॥

हिन्दी अनुवाद :- १. भगवान् श्रीकृष्ण की प्रियतमा हे तुलसी देवी! मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं श्रीराधा-कृष्ण की सेवा प्राप्त करूँ ।

जे तोमार शरण लय, तार वाञ्छा पूर्ण हय ।

कृपा करि’ करो तारे बृन्दावन – बासी ॥ २ ॥

हिन्दी अनुवाद :- २. जो कोई भी आपकी शरण लेता है उसकी कामनाएँ पूर्ण होती हैं। उस पर आप कृपा करके उसे वृन्दावनवासी बना देती हैं।

मोर एइ अभिलाष, बिलास कुंजे दिओ वास ।

नयने हेरिब सदा जुगल-रूप-राशि ॥ ३ ॥

हिन्दी अनुवाद :- ३. मेरी यही अभिलाषा है कि आप मुझे भी वृन्दावन-धाम के कुंजों में निवास प्रदान करें। इस तरह मैं श्रीराधा-कृष्ण की सुन्दर लीलाओं का सदैव अपने नेत्रों से दर्शन कर सकूँगा।

एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत करो।

सेवा अधिकार दिये करो निज दासी ॥ ४॥

हिन्दी अनुवाद :- ४. मेरा आपसे निवेदन है कि मुझे ब्रजगोपियों की अनुचरी बना दीजिए तथा भक्ति का अधिकार देकर मुझे अपनी दासी बना लीजिये।

दीन कृष्णदासे कय, एइ येन मोर हय

श्रीराधा-गोविन्द-प्रेमे सदा येन भासि ॥ ५ ॥

हिन्दी अनुवाद :- ५. कृष्ण का यह अति दीन दास आपसे प्रार्थना करता है, “मैं सदा सर्वदा श्री श्रीराधा-गोविन्द के प्रेम में तैरता रहूँ।”

श्रीतुलसी- प्रदक्षिणा मंत्र हिन्दी अनुवाद सहित

यानि कानि च पापानि ब्रह्म-हत्यादिकानि च ।

तानि तानि प्रणश्यन्ति प्रदक्षिणः पदे पदे ॥

हिन्दी आनुवाद :- जो कोई भी पाप किया हो चाहे ब्रह्म हत्या ही क्यों ना हो तुलसी महारानी की प्रदक्षिणा के कदम कदम पर नष्ट हो जाता है और वह सारे पापों से मुक्त हो जाता है

श्री श्रीशिक्षाष्टक

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं

श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।

आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं

सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम्

॥ १ ॥

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-

स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।

एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि

दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः

॥ २ ॥

तृणादपि सुनीचेन

तरोरपि सहिष्णुना ।

अमानिना मानदेन

कीर्तनीयः सदा हरिः

॥ ३ ॥

न धनं न जनं न सुन्दरीं

कवितां वा जगदीश कामये ।

मम जन्मनि जन्मनीश्वरे

भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि

॥ ४ ॥

अयि नन्दतनुज किङ्करं

पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।

कृपया तव पादपङ्कज-

स्थित-धूलीसदृशं विचिन्तय

॥ ५ ॥

नयनं गलदश्रुधारया

वदनं गद्गदरुद्धया गिरा ।

पुलकैर्निचितं वपुः कदा

तव नामग्रहणे भविष्यति

॥ ६ ॥

युगायितं निमेषेण

चक्षुषा प्रावृषायितम्।

शून्यायितं जगत् सर्वं

गोविन्दविरहेण मे

॥ ७ ॥

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु माम्

अदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।

यथा तथा वा विदधातु लम्पटो

मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः

॥ ८ ॥

श्री श्रीशिक्षाष्टक हिन्दी अनुवाद सहित

चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं

श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।

आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं

सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम् ॥ १ ॥

हिन्दी अनुवाद :- श्रीकृष्ण संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय में वर्षों से एकत्रित धूल को स्वच्छ करता है और बद्धजीवन तथा बारम्बार जन्म एवं मृत्यु की महादावाग्नि को बुझाता है।

यह संकीर्तन आन्दोलन सारी मानवता के लिए मुख्य वरदान है, क्योंकि यह वरदायक चन्द्रमा की किरणों को फैलाता है।

यह समस्त दिव्य ज्ञान का जीवन है। यह दिव्य आनन्द के सागर को बढ़ाने वाला है और उस अमृत को चखने में हमें समर्थ बनाता है जिसके लिए हम सदैव लालायित रहते हैं।

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-

स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।

एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि

दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥ २ ॥

हिन्दी अनुवाद :- हे भगवान् ! एकमात्र आपका पवित्र नाम ही जीवों का सब प्रकार से कल्याण करने वाला है, और इस प्रकार आपके श्रीकृष्ण, गोविन्द जैसे सैकड़ों लाखों नाम हैं।

आपने अपने इन नामों में अपनी सारी दिव्य शक्तियाँ भर दी हैं। इन नामों का उच्चारण करने के लिए कोई निश्चित और कठोर नियम नहीं हैं।

हे प्रभु! आपने अपनी कृपा के कारण अपने पावन नामों के कीर्तन द्वारा हमें अत्यन्त ही सरलता से अपने पास पहुँचने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि आपके ऐसे नाम में भी मेरा अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता।

तृणादपि सुनीचेन

तरोरपि सहिष्णुना ।

अमानिना मानदेन

कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ ३ ॥

हिन्दी अनुवाद :- मनुष्य को चाहिए कि विनीत भाव से अपने को रास्ते पर पड़े तृण से भी नीचा मानते हुए भगवान् के पवित्र नाम का जप करें,

वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु बने, झूठा सम्मान पाने की भावना से रहित हो, और अन्यों का सम्मान करने के लिए तैयार रहे। ऐसी मनोदशा होने पर मनुष्य भगवान् के पवित्र नाम का निरन्तर कीर्तन कर सकता है।

न धनं न जनं न सुन्दरीं

कवितां वा जगदीश कामये ।

मम जन्मनि जन्मनीश्वरे

भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥ ४ ॥

हिन्दी अनुवाद :- हे सर्वशक्तिमान् प्रभो मुझमें न तो धन संचित करने की इच्छा है, न मैं सुन्दर स्त्रियाँ चाहता हूँ, न मुझे अनेक अनुयायियों की कामना है। मैं तो जन्म-जन्मान्तर आपकी अहैतुकी भक्ति का ही इच्छुक हूँ।

अयि नन्दतनुज किङ्करं

पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।

कृपया तव पादपङ्कज-

स्थित-धूलीसदृशं विचिन्तय ॥ ५ ॥

हिन्दी अनुवाद :- हे महाराज नन्द के पुत्र (कृष्ण)! मैं आपका नित्य दास (किंकर) हूँ, फिर भी न जाने किस तरह, मैं जन्म तथा मृत्यु के सागर में गिर गया हूँ। कृपया मुझे इस मृत्यु-सागर से निकाल कर अपने चरण-कमल की धूलि बना लें।

नयनं गलदश्रुधारया

वदनं गद्गदरुद्धया गिरा ।

पुलकैर्निचितं वपुः कदा

तव नामग्रहणे भविष्यति ॥ ६ ॥

हिन्दी अनुवाद :- हे प्रभो! कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करने पर मेरे नेत्र निरन्तर प्रवाहमान प्रेमाश्रुओं से सुशोभित होंगे ? कब मेरी वाणी अवरुद्ध होगी और कब आपका नाम लेते ही मुझे रोमांच होगा ?

युगायितं निमेषेण

चक्षुषा प्रावृषायितम्।

शून्यायितं जगत् सर्वं

गोविन्दविरहेण मे ॥ ७ ॥

हिन्दी अनुवाद :- हे गोविन्द ! आपके वियोग का अनुभव करते हुए मैं एक क्षण को बारह वर्षों का या इससे भी अधिक अवधि का मानता हूँ। मेरे नेत्रों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई है और आपकी अनुपस्थिति में मुझे सारा विश्व शून्य लग रहा है।

आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु माम्

अदर्शनान्मर्महतां करोतु वा ।

यथा तथा वा विदधातु लम्पटो

मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ॥ ८ ॥

हिन्दी अनुवाद :- मैं अपने प्रभु कृष्ण के अतिरिक्त किसी अन्य को नहीं जानता वे मेरे लिए हमेशा उसी तरह बने रहेंगे, भले ही वे मेरा प्रगाढ़ आलिंगन करते समय उद्दंडता से पेश आएँ या मेरे समक्ष उपस्थित न होकर मेरा हृदय तोड़ दें।

वे कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र हैं, क्योंकि बिना शर्त वे सदा-सर्वदा के लिए मेरे आराध्य भगवान् हैं।

पवित्र नामों के कीर्तन के विरुद्ध दस नामापराध

सतां निन्दा नाम्नः परमम् अपराधं वितनुते

यतः ख्यातिं यातं कथमु सहते तद्विगर्हम्

शिवस्य श्रीविष्णोर्य इह गुणनामादि सकलं

धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरिनामाहितकरः ॥

.

गुरोरवज्ञा श्रुतिशास्त्रनिन्दनं

तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम् ।

नाम्नो बलाद् यस्य हि पापबुद्धि-

र्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः ॥

.

धर्मव्रतत्यागहुतादिसर्व-

शुभक्रियासाम्यमपि प्रमादः ।

अश्रद्दधाने विमुखेऽप्यशृण्वति

यश्चोपदेशः शिवनामापराधः ॥

.

श्रुत्वापि नाममाहात्म्ये

यः प्रीतिरहितोऽधमः ।

अहंममादिपरमो

नाम्नि सोऽप्यपराध कृत् ॥

.

(पद्म पुराण, ब्रह्म खण्ड २५.१५-१८,

सनत्कुमार से नारद मुनि तथा हरिभक्तिविलास ११.५२४)

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